डर के बारे में आपके क्या विचार है ?

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डर ,किसी को खो देने का डर ,अकेले रह जाने का डर ,असफ़ल हो जाने का डर ,दिल में छुपाये राज के खुल जाने का डर बहुत सारे डर होते है। वैसे तो समय समय की बात होती है लेकिन एक डर जो होके भी किसी को नज़र नहीं आता या इसे नज़रअंदाज़ करना सही लगता है लेकिन आसानी से स्वीकार नहीं किया जाता वो है एक कदम उठाने का डर ,आगे बढ़ने का डर।

हम सभी को ये डर जरूर सताता है। लेकिन ख़ास कर उन लोगो को जिन्होंने अब तक भी अपनी लाइफ को ना बदलने का कोई कदम नहीं उठाया लेकिन हां चाहते बहुत है।

मुझे भी एक डर ना जाने कब से सता रहा है। अपनी लव लाइफ के सम्बन्ध को उजागर ना कर पाने का डर। ऐसा नहीं है की मैने कभी कोशिश नहीं की। बस पूरी तरह कामयाब नहीं हो पाई और इसलिए कभी कभी मुझे झुंझलाहट होती है की क्या है ये समाज और दुनिया ,ना तो खुद जीती ना दुसरो को जीने देती।

ना चाहते हुए भी लोगों का डर सताता है। सब पता है ये समाज और ये दुनिया कैसे है। ऐसा सिर्फ मेरे साथ नहीं बहुतो के साथ है। सबके अपने कारण है।

हम जानते है की ज़िन्दगी सिर्फ एक ही है हमारे पास। यही है जो है अच्छी बुरी। तो फिर क्यों इतना डर भरा हुआ है की जीते जी कुछ नहीं कर पा रहे और सोचते है मर जाए तो बेहतर होगा। क्यों ! मर कर क्या कर लोगे। जब अभी कुछ नहीं कर सकते तो मर कर कोनसा तीर चल जायेगा।

कभी कभी मैं सोचते हुए बहुत दूर निकल जाती हु। और ख्याल आता है की हम खुद ही कितना परेशान हो रहे है। हालात इतने भी बुरे नहीं होंगे जितना हम सोच लेते है। और सही कहते है कोई कैसे और किन भावनाओ के साथ सोचता है हम पता नहीं लगा सकते। ये बिलकुल ऐसे है जैसे आपकी असफलता का एहसास सिर्फ आपको होगा दूसरा सिर्फ इसपर अफ़सोस जता सकता है और कुछ नहीं।

सफलता मिले या असफलता कुछ दिन बाद हम नार्मल हो जाते है लेकिन डर हमें कभी नार्मल नहीं होने देता। घूम-फिर के हमें वही ले आता है।

कभी कभी सोचते हुए मुझमे इतनी ऊर्जा आजाती है की मैं खुद से कहती हु भाड़ में जाए सभी लोग। मुझे और नहीं डरना। बस बहुत हुआ मुझे जीना है और खुलकर अच्छे से जीना है। आज सब कुछ साफ़ बात हो जानी है। बस ये सब सोचते हुए ही मैं दिन निकाल देती हु। किसी से भी कुछ कहने में देरी कर देती हु और वो डर फिर से दिल -दिमाग में जगह बना लेता है। हां बहुतों के साथ ऐसा ही होता है जानती हु।

फिर बहुत बार ऐसा हो जाने के बाद वो डर अब पहले से बेतुका हो चला है। अब उस डर पर हसीं भी आती है की इसकी वजह से हमने अपनी ज़िन्दगी के ना जाने कितने सुनहरे पल खो दिए। तब जब हसते हस्ते ये डर याद आजाता था और हमारे होठों की हसी पल भर में गायब हो जाती थी।

आपको नहीं लगता ये बहुत ज्यादा हो गया है। मुझे तो लगता है। क्यूंकि कहते है ना डर कर जिये तो क्या जिए। सही कहते है। उन दिनों को याद करो और पूछो खुद से क्या सच में हम जिए या बस दिन कट रहे थे।

डर से इतना भी क्या डरना की ज़िन्दगी को जीते जी भी ख़तम कर दिया। २०२५ लगने वाला है। मैने खुद से वादा किया है पता नहीं कितनी है ज़िन्दगी लेकिन खुलकर बिना डर के जीनी है। क्या होगा बिना सोचे बस कदम उठाने है क्यूंकि अब तक सोच ही तो रहे थे।

जानती हु मैं कदम उठाना मुश्किल है अब भी लेकिन हर उस इंसान से रिक्वेस्ट है कदम उठाये। बात करे। डर कुछ नहीं हमारा ही बनाया गया एक वहम है। इसके उस पार बहुत कुछ है। आपका इन्तजार किए खूबसूरत ज़िन्दगी।

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