
होली … रंगो का त्यौहार।
मुझे याद भी नहीं आखरी बार ये त्यौहार मैने कब मनाया था। बचपन की तो बहुत सी यादें है। कैसे होली वाले दिन होली खेल लेने के बाद ,नहा के साफ़ कपडे पहनके शाम को बाहर रोजाना के खेल खेलते। लेकिन बड़े बुजुर्गो की होली पूरा दिन चलती है और कैसे उस बीच हम भी और रंग में हो जाते थे। लेकिन घर आने पर मम्मी से जो डाट पड़ती थी वो आज बहुत मजेदार लगती है।
कैसे बचपन में दोस्तों के साथ दूर दूर भागते और रंग लगाते जाते। कोई दोस्त उस दिन बाहर नहीं आया तो कैसे कैसे उसे बाहर लाने की तरकीबे लगाई जाती। होली के दिन जो सबसे साफ़ और छुपा हुआ नज़र आता है उसी को रंगने में ज्यादा मजा भी आता है।
कॉलेज के दिनों में होली पर मैं अपने गाँव थी। बहुत समय से कभी आई गई नहीं थी तो मुझे लगा शायद ही कोई होली खेले। क्यूंकि बचपन अब जवान हो चला था। मैं नहाके साफ़ कपड़ो में अंदर बैठी थी। दोपहर पूरी निकल गई। शाम के करीब 4 बजे मेरी पड़ोस की एक चाची को पता चला की मैं आई हुई हु। अपनी दोनों बेटियों के साथ वो ढेर सारा रंग लेकर आई और ना करने के बावजूद पानी में रंग डालके मुझे पूरा गीला करके ही गई। और जाते जाते हस्ते हुए बोलके गई की होली को कौन नहाके साफ़ सुथरा रहता है।
पहले ये सब चल जाता था लेकिन अब लोग अपने ही घरो में इतना सिमट गए है की हिम्मत ही नहीं होती किसी को किसी के रंग लगाने की। बूरा भी मान जाते है और बात को पतंगड भी बनते देरी नहीं लगती।
लेकिन मेरी बहुत इच्छा है फिर से होली की ढेर सारी शरारतें करने की। ढेर सारी मस्ती करने की। मेरी माँ होली पर अक्सर घर में ही सभी पकवान बनाती है। मुझे मोम की और पुरानी पीढ़ी की ये बात बहुत पसंद है। यहाँ घरो में आज भी तीज -त्यौहार पर घर की औरतें घर में पकवान बनाती है बजाये बाहर के लाने की। ये सब मेहनती लगता है लेकिन सच पूछो तो इनमे बहुत मज़ा है।
मुझे याद है जब मम्मी मिटटी के चूल्हे पर खाना बनारी होती थी और आस पास की चाचियाँ और औरतें मम्मी को रंग जाती और साथ की साथ उनके पकवान भी चख जाती। साथ आये बच्चों को मम्मी एक एक चीज़ हाथ में दे देती थी। कैसे हम अपने घर के पालतू जानवरो को भी रंग देते थे और शाम ढलने पर सब साथ में पानी में मजे करते।
पुराने दिन तो वापस नहीं लाये जा सकते लेकिन अब नई यादें जरूर बनाई जा सकती है। त्यौहार आते ही इसलिए है की ये हमारी उबाऊ ज़िन्दगी को कुछ रोचक बनादे। नहीं भी मनाएंगे तो भी ये आके चले जाते है।
सभी की अपनी ज़िन्दगी है ,काम है ,घर -परिवार है और बहुत व्यस्त ज़िन्दगी है। लेकिन इतना भी क्या व्यस्त होना की जीना ही भूल जाए। फिर एक दिन सब कुछ छोड़कर खुद को ढूढ़ने निकल पड़े।
सभी खुशियां और यादें वही है। कुछ नहीं बदला बस इंसान और उसकी आदतें बदल गई है।